31 दिसंबर की सुबह दिल्ली-एनसीआर में सूरज नहीं निकला, धुएँ और धुंध की मोटी परत ने उसे ढक लिया। एयर क्वालिटी इंडेक्स खतरनाक स्तर पर था, दृश्यता लगभग शून्य, और शहर की रफ्तार ठहर-सी गई। यह कोई अचानक आई आपदा नहीं, बल्कि वर्षों की लापरवाही का तयशुदा नतीजा है।
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हवाई अड्डों पर उड़ानें अटकीं, ट्रेनें लेट हुईं, सड़कों पर हादसों का ख़तरा बढ़ा। अस्पतालों में सांस की शिकायतें बढ़ीं। लेकिन सबसे चिंताजनक यह नहीं सबसे डरावनी बात है कि यह सब अब “नॉर्मल” मान लिया गया है। चेतावनियाँ आती हैं, बयान दिए जाते हैं, और फिर वही पुराना ढर्रा।
प्रशासन हर सर्दी में कारण गिनाता है, मौसम, पराली, वाहन, निर्माण, पर समाधान हमेशा अस्थायी रहते हैं। कुछ दिनों की पाबंदी, कुछ प्रतीकात्मक कदम, और फिर चुप्पी। जब तक साफ़ हवा को आपातकाल नहीं माना जाएगा, तब तक यह संकट कैलेंडर के साथ लौटता रहेगा।
यह शहर विकास की बातें करता है, लेकिन हवा की कीमत पर। बच्चे मास्क में स्कूल जाते हैं, बुज़ुर्ग घरों में कैद रहते हैं, और कामकाजी लोग “आज सांस ली या नहीं”, इस सवाल के साथ दिन शुरू करते हैं। नया साल अगर जश्न का वादा करता है, तो दिल्ली की हवा हर बार उसे तोड़ देती है।
दिल्ली-एनसीआर को अब घोषणाएँ नहीं, निर्णायक नीति चाहिए, स्थायी सार्वजनिक परिवहन, निर्माण धूल का सख़्त नियंत्रण, हरित आवरण का वास्तविक विस्तार, और ईमानदार जवाबदेही। वरना हर 31 दिसंबर यही शीर्षक दोहराया जाएगा, “साल बदला, हवा नहीं।”