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बॉलीवुड में असमानता: क्यों नायिका जल्दी मां बन जाती हैं और नायक हमेशा हीरो रहते हैं?

By HO BUREAU 

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Inequality in Bollywood

बॉलीवुड में सितारों की चमक-दमक हमेशा चर्चा में रहती है, लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए तो पर्दे पर महिला और पुरुष कलाकारों के साथ अलग तरह का व्यवहार होता है। जहाँ उम्र बढ़ने पर अभिनेत्रियों को ज्यादातर ‘माँ’ या सहायक किरदार मिलते हैं, वहीं उसी दौर के पुरुष कलाकार अब भी मुख्य हीरो के तौर पर स्क्रीन पर छाए रहते हैं।

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नायिकाओं की सीमित भूमिकाएँ

काजोल जैसी प्रतिभाशाली अभिनेत्री, जिन्होंने दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे और कुछ कुछ होता है में रोमांटिक हीरोइन के रूप में पहचान बनाई, आज त्रिभंगा और सलाम वेंकी जैसी फिल्मों में माँ की भूमिकाओं में दिखती हैं।
इसी तरह करीना कपूर खान, जिन्होंने जब वी मेट और कभी खुशी कभी ग़म से दर्शकों का दिल जीता, हाल की फिल्मों और सीरीज़ में माँ या परिपक्व महिला किरदारों में ही सीमित हो गई हैं।
रानी मुखर्जी, विद्या बालन और माधुरी दीक्षित जैसी कई अभिनेत्रियाँ भी इसी पैटर्न का हिस्सा रही हैं, जिन्हें उम्र के साथ ग्लैमरस भूमिकाओं की जगह घरेलू या माँ जैसी छवियाँ दी गईं।

 

नायक अब भी रोमांटिक हीरो

इसके उलट, 2000 के दशक के सुपरस्टार अब भी बड़े पर्दे पर रोमांटिक और एक्शन हीरो के रूप में नज़र आते हैं।

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* शाहरुख़ ख़ान ने पठान और जवान जैसी फ़िल्मों में दमदार वापसी की और उनसे काफी छोटी उम्र की अभिनेत्रियों के साथ जोड़ी बनाई।
* अक्षय कुमार अब भी हाउसफुल और ओह माय गॉड 2 जैसी फिल्मों में मुख्य हीरो के रूप में सक्रिय हैं।
* सलमान ख़ान टाइगर 3 और किसी का भाई किसी की जान में नई पीढ़ी की अभिनेत्रियों के साथ रोमांटिक पार्टनर के रूप में दिखते हैं।

इससे साफ है कि पुरुष कलाकारों की उम्र उनके करियर को सीमित नहीं करती, बल्कि उन्हें लगातार हीरो का टैग मिलता रहता है।

 

असमानता की जड़ें

यह प्रवृत्ति बताती है कि हिंदी फ़िल्म उद्योग में महिलाओं की अहमियत अक्सर उनकी उम्र और सुंदरता तक ही सीमित कर दी जाती है। एक निश्चित उम्र के बाद उन्हें रोमांटिक भूमिकाओं से बाहर कर दिया जाता है, जबकि पुरुष कलाकारों के लिए यही नियम लागू नहीं होते। नतीजतन, महिला कलाकार जल्दी ‘माँ’ बन जाती हैं और पुरुष कलाकार उम्र के बावजूद हीरो बने रहते हैं।

 

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बदलाव की ज़रूरत

आज समय है कि बॉलीवुड इस असमानता को तोड़े। महिला कलाकारों में भी उतनी ही प्रतिभा और दमदार अभिनय क्षमता है, जो उन्हें विविध और चुनौतीपूर्ण भूमिकाएँ निभाने का अवसर देती है। उन्हें केवल माँ या घरेलू महिला तक सीमित करना उनके साथ अन्याय है।
साथ ही, दर्शकों को भी इस भेदभाव को पहचानकर ऐसी फिल्मों का समर्थन करना चाहिए, जिनमें महिला और पुरुष कलाकारों को समान स्तर पर प्रस्तुत किया जाए।

 

निष्कर्ष

बॉलीवुड की यह परंपरा केवल फिल्मों की कहानी नहीं है, बल्कि समाज में मौजूद लैंगिक असमानता की झलक भी है। यदि सचमुच बदलाव चाहिए तो जरूरी है कि अभिनेत्रियों को उम्र के बजाय उनके कौशल और अनुभव के आधार पर भूमिकाएँ दी जाएँ। इसी तरह, पुरुष कलाकारों को भी यथार्थवादी किरदारों में कास्ट किया जाए। तभी बॉलीवुड सच में बराबरी और प्रगतिशीलता का प्रतीक बन पाएगा।

 

सपन

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