दिल्ली और एनसीआर आज केवल भारत की राजधानी और आर्थिक गतिविधियों का केंद्र नहीं हैं, बल्कि यह क्षेत्र धीरे-धीरे एक ऐसे गैस चैंबर में तब्दील होता जा रहा है जहाँ साँस लेना भी एक संघर्ष बन चुका है। हर साल सर्दियों के आते ही आसमान धूसर हो जाता है, सूरज धुंध में खो जाता है और “एयर क्वालिटी इंडेक्स” के आँकड़े डरावने स्तर पर पहुँच जाते हैं। इसके बावजूद, सत्ता की प्रतिक्रिया वही पुरानी औपचारिक बयान, अस्थायी पाबंदियाँ और फिर लंबा मौन।
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प्रदूषण अब यहाँ कोई मौसमी समस्या नहीं रह गई है; यह एक स्थायी आपदा बन चुका है। बच्चों की आँखों में जलन, बुज़ुर्गों की बिगड़ती साँसें, युवाओं में बढ़ती श्वसन समस्याएँ ये सब आँकड़े नहीं, रोज़मर्रा की सच्चाइयाँ हैं। मास्क अब महामारी की नहीं, बल्कि हवा की मजबूरी बन गए हैं। सुबह की सैर, जो कभी स्वास्थ्य का प्रतीक थी, आज जोखिम भरा निर्णय हो गया है।
हर साल सरकारें कारणों की सूची गिनाती हैं पराली जलाना, वाहन, निर्माण कार्य, औद्योगिक उत्सर्जन, मौसम। कारणों की पहचान नई नहीं है; नई नहीं है चेतावनी भी। नया अगर कुछ है, तो वह है कार्रवाई की कमी। कुछ दिनों के लिए स्कूल बंद, निर्माण पर अस्थायी रोक, ऑड ईवन जैसी योजनाएँ ये सब ऐसे हैं जैसे गहरे घाव पर अस्थायी पट्टी लगा दी जाए। समस्या जड़ में बनी रहती है।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि नीतिगत स्तर पर दीर्घकालिक समाधान का अभाव साफ़ दिखाई देता है। सार्वजनिक परिवहन को वास्तव में सुलभ और स्वच्छ बनाने की गति धीमी है। इलेक्ट्रिक वाहनों की बात होती है, पर चार्जिंग ढाँचा और प्रोत्साहन ज़मीनी स्तर पर नाकाफी हैं। हरित क्षेत्रों की बात होती है, पर पेड़ कटते ज़्यादा हैं, लगते कम। निर्माण धूल नियंत्रण के नियम काग़ज़ों में सख़्त हैं, सड़कों पर ढीले।
राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप इस संकट को और जटिल बना देते हैं। केंद्र बनाम राज्य, राज्य बनाम पड़ोसी जिम्मेदारी बँटती रहती है, हवा नहीं सुधरती। इस खींचतान में सबसे ज़्यादा कीमत आम नागरिक चुकाता है। स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च, उत्पादकता में गिरावट और जीवन की गुणवत्ता में निरंतर क्षरण ये सब अदृश्य कर दिए जाते हैं।
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मीडिया में कभी-कभार शोर मचता है, सोशल मीडिया पर गुस्सा उभरता है, पर व्यवस्था की प्राथमिकताओं में प्रदूषण फिर पीछे छूट जाता है। यह विडंबना है कि जिस शहर में नीति बनती है, वही शहर अपनी हवा के लिए नीति का इंतज़ार कर रहा है। जब तक प्रदूषण को आपातकाल की तरह नहीं देखा जाएगा, तब तक “नॉर्मल” बना यह ज़हर सामान्य जीवन का हिस्सा बना रहेगा।
दिल्ली एनसीआर की दम घोंटती ज़िंदगी एक चेतावनी है केवल इस क्षेत्र के लिए नहीं, पूरे देश के लिए। हवा किसी सीमा को नहीं मानती, और लापरवाही किसी एक मौसम में सीमित नहीं रहती। अब समय है कि सरकारें मौन तोड़ें, दिखावटी उपायों से आगे बढ़ें और ठोस, समयबद्ध, जवाबदेह कदम उठाएँ। क्योंकि विकास वही है जिसमें नागरिक साँस ले सकें बिना डर, बिना मास्क, बिना इस सवाल के कि आज की हवा ज़िंदगी देगी या छीन लेगी।