“भारत में सोशल मीडिया कंपनियों की बढ़ती भूमिका, डेटा प्राइवेसी और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन पर एक गहरा विमर्श।“
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पिछले कुछ वर्षों में भारत डिजिटल युग की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हुआ है। इस डिजिटल विस्तार का सबसे बड़ा लाभ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को मिला। इनमें WhatsApp जैसी इंस्टेंट मैसेजिंग एप्लिकेशन ने भारत में लगभग 53 करोड़ से अधिक यूजर्स के साथ अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल की।
लेकिन इसी डिजिटल सशक्तिकरण के साथ-साथ फेक न्यूज, अफवाह, साइबर अपराध, और सामाजिक विद्वेष फैलाने वाली गतिविधियों में भी तेजी आई। इसी पृष्ठभूमि में भारत सरकार ने आईटी रूल्स 2021 लागू किए, जिसके तहत बड़ी इंटरमीडियरी कंपनियों से कानून व्यवस्था बनाए रखने हेतु सहयोग की अपेक्षा की गई।
यहीं से शुरू होती है एक गंभीर बहस — सुरक्षा बनाम निजता की।
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सरकार का पक्ष : राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि
सरकार का तर्क बिल्कुल स्पष्ट है।
अगर कोई मैसेज, चाहे वह अफवाह, सांप्रदायिक तनाव भड़काने वाला, या बच्चों के प्रति अपराध से जुड़ा हो — वायरल होता है, तो यह जानना अनिवार्य है कि वह सबसे पहले किसने भेजा था।
आईटी एक्ट 2021 के अनुसार ऐसी परिस्थिति में संबंधित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को ‘मैसेज ओरिजिनेटर’ यानी सबसे पहले भेजने वाले की जानकारी सरकार या एजेंसियों को देनी होगी।
सरकार का दावा है कि इससे
- दंगे-फसाद जैसी घटनाओं पर काबू पाया जा सकेगा।
- अश्लील, हिंसक और समाज-विरोधी कंटेंट फैलाने वालों पर त्वरित कार्रवाई होगी।
- देश की सॉवरेनिटी, इंटिग्रिटी और पब्लिक ऑर्डर को बनाए रखने में मदद मिलेगी।
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WhatsApp का पक्ष : प्राइवेसी का हनन
दूसरी ओर, WhatsApp का कहना है कि उसका पूरा सिस्टम एंड–टू–एंड इनक्रिप्शन पर आधारित है, जिसके तहत कंपनी स्वयं भी मैसेज नहीं पढ़ सकती।
- कंपनी का तर्क है कि यदि ओरिजिनेटर की जानकारी उपलब्ध करानी पड़ी, तो इनक्रिप्शन की सुरक्षा भंग होगी।
- इससे यूजर्स का विश्वास टूटेगा और वे प्लेटफॉर्म छोड़ने लगेंगे।
- यह यूजर्स की प्राइवेसी, फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन और डिजिटल स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा।
इतना ही नहीं, कंपनी ने इसे लेकर दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की है।
समस्या का मूल : संतुलन की दरकार
इस पूरे विवाद में दोनों पक्ष अपनी-अपनी जगह सही प्रतीत होते हैं।
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- सरकार का मकसद अपराधों पर अंकुश लगाना है।
- WhatsApp यूजर्स की निजता और डेटा प्रोटेक्शन को सर्वोपरि मानता है।
असल चुनौती यह है कि सुरक्षा और प्राइवेसी के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।
एक ऐसे दौर में जब
- मोबाइल डेटा, लोकेशन, कॉल रिकॉर्डिंग
- सोशल मीडिया इन्फ्लुएंस
- फेक न्यूज और अफवाहों का असर जनजीवन और प्रशासन दोनों पर पड़ रहा है,
सरकार की चिंताएं जायज़ हैं।
वहीं दूसरी ओर, निजता का अधिकार भी संविधान द्वारा संरक्षित है।
क्या हो सकता है समाधान?
विशेषज्ञों का मानना है कि इसका एक मध्यम मार्ग निकाला जाना चाहिए।
जैसे—
- केवल गंभीर मामलों में न्यायालय के निर्देश या सरकार की स्वीकृति पर ही ओरिजिनेटर की जानकारी ली जाए।
- सोशल मीडिया कंपनियां डेटा प्रोटेक्शन ऑडिट सिस्टम लागू करें।
- एक स्वतंत्र डेटा संरक्षण प्राधिकरण (DPA) का गठन, जो ऐसे विवादों की निष्पक्ष निगरानी करे।
- यूजर्स को भी अपने डिजिटल अधिकार और जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक किया जाए।
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निष्कर्ष : लोकतंत्र में पारदर्शिता भी ज़रूरी, निजता भी
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहां निजता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक सौहार्द भी।
ऐसे में दोनों पक्षों को संवेदनशीलता और जिम्मेदारी के साथ संवाद कर समाधान निकालना होगा।
सरकार को नागरिक स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए और कंपनियों को राष्ट्रहित में सहयोग करना चाहिए।
क्योंकि लोकतंत्र में न तो सुरक्षा के नाम पर प्राइवेसी का हनन स्वीकार्य है, और न ही प्राइवेसी के नाम पर अपराध का संरक्षण।