उन्नाव दुष्कर्म मामले ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि न्याय केवल अदालतों के गलियारों में नहीं, बल्कि जनता की चेतना में भी जीवित रहता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला लेते हुए स्पष्ट कर दिया कि इस मामले में दोषी ठहराए गए कुलदीप सिंह सेंगर को फिलहाल किसी भी तरह की रिहाई नहीं दी जाएगी। यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक और नैतिक स्तर पर भी गहरी छाप छोड़ता है।
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दरअसल, दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सेंगर की उम्रकैद की सजा को अस्थायी रूप से निलंबित करने का आदेश दिया गया था, जिसके बाद उसके जेल से बाहर आने की संभावना बन गई थी। जैसे ही यह खबर सामने आई, देशभर में असंतोष की लहर दौड़ गई। पीड़िता, उसके परिवार और आम नागरिकों ने इसे न्याय के साथ अन्याय बताया। सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक मंचों तक, एक ही सवाल गूंजने लगा, क्या इतने जघन्य अपराध में दोषी व्यक्ति को इतनी आसानी से राहत मिलनी चाहिए?
इसी जनदबाव और केंद्रीय जांच एजेंसी की अपील के बाद सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया। शीर्ष अदालत ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगाते हुए कहा कि यह मामला साधारण नहीं है और इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। अदालत ने यह भी ध्यान दिलाया कि सेंगर के खिलाफ अन्य गंभीर आपराधिक मामले भी दर्ज हैं, जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। इसलिए फिलहाल उसका जेल में रहना आवश्यक है।
यह फैसला पीड़िता के लिए एक तरह से मानसिक राहत लेकर आया। वर्षों तक धमकियों, सामाजिक दबाव और असुरक्षा के माहौल में जीने के बाद, अदालत का यह रुख़ उसे यह भरोसा देता है कि उसकी लड़ाई व्यर्थ नहीं गई। पीड़िता के समर्थन में खड़ी जनता ने भी इस निर्णय को न्याय की दिशा में एक ठोस कदम माना।
उन्नाव मामला शुरू से ही केवल एक अपराध की कहानी नहीं रहा है। यह सत्ता के दुरुपयोग, पीड़िता की आवाज़ को दबाने की कोशिशों और सिस्टम की खामियों का भी प्रतीक रहा है। ऐसे में जनता का एकजुट होकर खड़ा होना इस मामले को दबने से बचाता रहा। विरोध प्रदर्शन, मीडिया कवरेज और निरंतर सवालों ने यह सुनिश्चित किया कि यह केस केवल फाइलों में सिमटकर न रह जाए।
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हालाँकि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश अंतिम फैसला नहीं है और कानूनी प्रक्रिया अभी जारी है, लेकिन इतना साफ़ है कि इस बार न्याय ने जल्दबाज़ी नहीं दिखाई। इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर यह दिखा दिया कि जब समाज सजग रहता है और पीड़ित के साथ खड़ा होता है, तो न्याय व्यवस्था भी उस संवेदनशीलता को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती।
उन्नाव मामले में यह निर्णय एक कड़ा संदेश देता है कि गंभीर अपराधों में दोष सिद्ध होने के बाद रसूख़, पद और ताकत, कानून से ऊपर नहीं हो सकते। और यह भी कि जनता की आवाज़, अगर एकजुट और लगातार हो, तो वह न्याय की दिशा को प्रभावित करने की ताकत रखती है।