महाभारत केवल एक युद्धकथा नहीं है, बल्कि यह समाज की सोच और स्त्री की स्थिति को उजागर करने वाला महाग्रंथ है। इसमें द्रौपदी का चीरहरण एक ऐसा प्रसंग है जिसने इतिहास में गहरी छाप छोड़ी। यह घटना न सिर्फ स्त्री की गरिमा पर आघात थी, बल्कि इसने यह भी दिखाया कि जब भी किसी संघर्ष की जड़ तलाशनी होती है, समाज अक्सर स्त्री पर ही दोष मढ़ देता है।
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महाभारत केवल एक युद्धकथा नहीं है, बल्कि यह समाज की सोच और स्त्री की स्थिति को उजागर करने वाला महाग्रंथ है। इसमें द्रौपदी का चीरहरण एक ऐसा प्रसंग है जिसने इतिहास में गहरी छाप छोड़ी। यह घटना न सिर्फ स्त्री की गरिमा पर आघात थी, बल्कि इसने यह भी दिखाया कि जब भी किसी संघर्ष की जड़ तलाशनी होती है, समाज अक्सर स्त्री पर ही दोष मढ़ देता है।
द्यूत क्रीड़ा में पांडवों ने एक-एक कर अपनी संपत्ति, राज्य और अंततः द्रौपदी तक को दाँव पर लगा दिया। हारने के बाद जब द्रौपदी को सभा में लाया गया और उसका चीरहरण करने की कोशिश हुई, तो यह केवल व्यक्तिगत अपमान नहीं था, बल्कि स्त्रीत्व पर सीधा हमला था। उस समय सभा में बैठे बड़े-बड़े योद्धा चुप रहे, जिसने पितृसत्तात्मक व्यवस्था की मानसिकता को उजागर किया।
महाभारत के युद्ध को द्रौपदी के क्रोध और अपमान से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन क्या सचमुच युद्ध का कारण द्रौपदी थी? जुए की बाज़ी लगाई पांडवों ने, अपमानित किया कौरवों ने, और चुप्पी साधी पूरी सभा ने। फिर भी इतिहास ने यह कहने में देर नहीं लगाई कि “युद्ध द्रौपदी की वजह से हुआ।” यह दिखाता है कि समाज में स्त्रियों को दोष देना कितना आसान माना जाता है।
चाहे द्रौपदी का प्रसंग हो या सीता के वनवास का, हर दौर में स्त्रियाँ ही कठिन परिस्थितियों का सामना करती रही हैं और अक्सर उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहराया गया। यह मानसिकता आज भी कायम है। कार्यस्थलों पर, राजनीति में, यहाँ तक कि पारिवारिक रिश्तों में भी जब कोई समस्या आती है तो सबसे पहले स्त्री पर ही उंगली उठती है।
द्रौपदी का प्रसंग हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि स्त्री को हर समय आसान निशाना क्यों समझा जाता है। चीरहरण की घटना हमें याद दिलाती है कि यह केवल अतीत का किस्सा नहीं, बल्कि आज भी स्त्री को बार-बार अपमानित, दोषी और बलि का बकरा बनाया जाता है।
महाभारत का युद्ध केवल सत्ता का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह स्त्री की अस्मिता और समाज की मानसिकता का आईना भी था। द्रौपदी को दोष देना यह साबित करता है कि पितृसत्तात्मक सोच स्त्रियों को जिम्मेदार ठहराकर अपने अपराध छिपाती रही है। समय की मांग है कि इस प्रवृत्ति को चुनौती दी जाए और यह स्वीकार किया जाए कि संघर्षों और युद्धों की असली जड़ स्त्री नहीं, बल्कि पुरुषों का लोभ, अहंकार और सत्ता की भूख है।