विदेश नीति किसी भी देश की ताकत, उसकी आंतरिक परिस्थितियों और अंतरराष्ट्रीय माहौल पर आधारित होती है। भारत ने स्वतंत्रता के बाद से अब तक अपनी विदेश नीति में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं।
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पंडित नेहरू ने आज़ादी के बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन और पंचशील सिद्धांतों को आधार बनाया। उनका फोकस विकास योजनाओं पर था ताकि गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन से देश बाहर निकल सके। चीन से 1962 का युद्ध उनकी सबसे बड़ी असफलता रही।
लाल बहादुर शास्त्री ने रक्षा और विकास दोनों पर संतुलन रखा। इंदिरा गांधी की विदेशनीति यथार्थवादी रही। 1971 में सोवियत संघ से समझौता कर उन्होंने पाकिस्तान को विभाजित कर बांग्लादेश का निर्माण कराया। इस दौर में भारत की वैश्विक स्थिति मजबूत हुई।
जनता पार्टी ने चीन के साथ सांस्कृतिक संबंधों पर जोर दिया लेकिन वियतनाम संकट के चलते प्रगति नहीं हुई। राजीव गांधी ने आक्रामक विदेशनीति अपनाई। उन्होंने मालदीव संकट सुलझाया, श्रीलंका में हस्तक्षेप किया और सार्क की स्थापना कराई।
भारत आर्थिक संकट में फंस चुका था। नरसिम्हा राव ने “Look East Policy” शुरू की। गुजराल डॉक्ट्रिन ने पड़ोसियों से बेहतर संबंधों पर फोकस किया।
अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ शांति की कोशिश की लेकिन कारगिल युद्ध और आतंकवादी हमलों से रिश्ते बिगड़े। यूपीए सरकार ने संतुलित विदेशनीति अपनाई, अमेरिका के साथ परमाणु समझौता किया और चीन को संतुलित करने की कोशिश की।
शुरुआत में “पड़ोस पहले” नीति अपनाई गई। शपथ ग्रहण में सार्क नेताओं की मौजूदगी ने उम्मीद जगाई। लेकिन समय के साथ नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, भूटान और बांग्लादेश में चीन का प्रभाव बढ़ता गया। आज भारत को 140 करोड़ उपभोक्ताओं का बाज़ार मानकर ही देखा जाता है।
भारत की विदेशनीति ने 1947 से अब तक कई उपलब्धियां और चुनौतियाँ देखी हैं। एक ओर भारत वैश्विक शक्ति बनने की दिशा में आगे बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर पड़ोस में चीन का बढ़ता प्रभाव चिंता का विषय है। आने वाले समय में संतुलित और व्यावहारिक विदेश नीति ही भारत को सशक्त बना सकती है।
✍️ VISHVANATH SINGH