फ्रांस में अचानक “Block Everything” (सब कुछ ब्लॉक करो) नामक विरोध-आंदोलन फैल गया है। इसका मकसद है सरकार की आर्थिक नीतियों—कम खर्च, बजट कटौती (austerity), सार्वजनिक सेवाओं में छंटनी—और जो युवा और आम जनता महसूस कर रही है कि उनके अधिकार और जीवन पर आयोग हो रहा है, उनको उभारना।
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फ्रांस में अचानक “Block Everything” (सब कुछ ब्लॉक करो) नामक विरोध-आंदोलन फैल गया है। इसका मकसद है सरकार की आर्थिक नीतियों—कम खर्च, बजट कटौती (austerity), सार्वजनिक सेवाओं में छंटनी—और जो युवा और आम जनता महसूस कर रही है कि उनके अधिकार और जीवन पर आयोग हो रहा है, उनको उभारना। protestors ने सड़कें, रेल पटरियाँ, सार्वजनिक जगहें ब्लॉक कर दीं, आगजनी हुए, पुलिस से झड़प हुई। कई शहरों में गाड़ियों को आग लगी और ट्रैफिक सिस्टम बुरी तरह प्रभावित हुआ।
इन प्रदर्शनों के बीच सरकार में बदलाव भी हुआ है: फ्रांस के राष्ट्रपति एमानुएल मैक्रों ने सेबेस्टियन लेकोर्नू को नया प्रधानमंत्री नियुक्त किया क्योंकि पिछली सरकार बजट प्रस्तावों और नो-कॉन्फिडेंस वोट के चलते संकट में थी। लेकिन यह नियुक्ति जनता की नाराज़ी कम नहीं कर पाई; बल्कि नए पीएम की प्रारंभिक ही ज़िम्मेदारियाँ भारी आलोचनाओं के साथ जुड़ी पाई जा रही हैं।
कुछ चीज़ें दोनों जगह मिलती-जुलती हैं:
जनता की नाराज़ी — भ्रष्टाचार, आर्थिक तंगी, असमानता जैसी वजहों से बहुत से लोग असंतुष्ट हैं।
युवा भागीदारी — Gen-Z या युवा वर्ग जहाँ सोशल मीडिया और नेटवर्क के ज़रिए आंदोलन में हाथ बाँध रहे हैं।
सरकारी नीतियों पर प्रहार — बजट कटौती, सार्वजनिक सेवाएँ कम होना, सामाजिक सुरक्षा और रोजगार की कमी।
सत्ता परिवर्तन या दबाव — नेपाल में PM का इस्तीफ़ा; फ्रांस में प्रधानमंत्री बदलने और राजनीतिक अस्थिरता।
नेपाल में आन्दोलन में गंगा और धार्मिक मुद्दे, भ्रष्टाचार और सोशल मीडिया बंदी जैसे “स्वतंत्रता और आवाज़” के सवाल मुख्य थे।
फ्रांस में मुद्दा ज़्यादातर आर्थिक और सामाजिक कल्याण के कम होने का है—पेंशन, सार्वजनिक छुट्टियाँ, स्वास्थ्य सेवाओं की कटौती आदि।
सेना जैसी भूमिका नेपाल में सामने आई; फ्रांस में सुरक्षा बलों ने झड़प की तो हुई है, लेकिन सेना का राजनीतिक नियंत्रण या तैनाती जैसा कुछ नहीं हुआ है।
जैसा नेपाल में हुआ, ऐसा लग रहा है कि फ्रांस में भी सरकार को ज़्यादा पारदर्शिता और जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए दबाव बढ़ेगा।
लेकोर्नू सरकार को संसद में विश्वास मत का सामना करना पड़ सकता है, विपक्षी पार्टियां और यूनियन्स ज़्यादा सक्रिय होंगी।
यदि प्रदर्शन शांतिपूर्ण बने रहते हैं और सरकार कुछ नीतियों में पीछे हटती है, तो संभव है कि कुछ बदलाव हों—लेकिन सत्ता पूरी तरह नहीं बदलेगी शायद।
हाँ—नेपाल की तरह फ्रांस में भी जनता ने आवाज़ उठाई है, और सत्ता पर असर हुआ है। दोनों देशों की कहानी एक जैसे नहीं है, लेकिन ये बताती है कि विकास और लोकतंत्र की भूख सीमाएँ नहीं जानती।
फ्रांस में तो मामला आर्थिक असंतुलन का है, नेपाल में ज़्यादा आवाज़ों और अधिकारों की लड़ाई है। लेकिन शायद दुनियाभर में यही संकेत है: जनता अब सिर्फ़ वोट नहीं, सवाल पूछना चाहती है, जवाब चाहती है, और परिवर्तन चाहती है।